Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति का भविष्य

पेज 1 पेज 2 पेज 3 पेज 4 पेज 5 पेज 6

भारतीय राजनीति का भविष्य

 

पेज 3

इस बार कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की कीमत पर बढ़ी है। भाजपा को नुकसान पहुंचा कर कांग्रेस मूलत: केवल शहरी क्षेत्रों और राजस्थान में जीती है। भाजपा को अपने सामाजिक आधार के बारे में समझदारी से योजना बनानी चाहिए और क्षेत्रीय स्तर पर कद्दावर नेताओं को तथा जमीनी कार्यकर्ताओं को फिर से सक्रिय करने के लिए अपने वैचारिक अधिष्ठान को युगानुकूल बनाकर ठोस एजेंडा पेश करना चाहिए। उत्तर भारत के 267 सीटों पर भाजपा की वर्तमान हालत एक राष्ट्रीय दल जैसी नहीं है। यदि यही हाल रहा तो भाजपा मात्र पश्चिमी भारत और कर्नाटक में सिमट कर रह जाएगी। 'डोला' प्रथा गुजरात में अभी हाल तक चली है। अत: उग्र हिन्दुत्व की गुजरात में आवश्यकता ऐतिहासिक रूप से बनी हुई थी। नरेन्द्र मोदी ने इस ऐतिहासिक आवश्यकता को पूरा किया। गुजराती हिन्दुओं की बहु- बेटियों की इज्जत 2002 तक सुरक्षित नहीं थी। अत: नरेन्द्र मोदी गुजरात के आम हिन्दुओं की दलित चेतना के प्रतिनिधि बन कर उभरे हैं। वहाँ अलग से बसपा या मायावती फेनोमेना की उत्तर प्रदेश जैसी संभावना सामान्य परिस्थिति में असंभव है। लेकिन हिन्दू प्रदेशों की सामाजिक परिस्थिति अलग है। मध्यप्रदेश, राजस्थान, पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, हिमाचल और उत्तरांचल आदि में उग्र हिन्दुत्व की सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकता नहीं है। बंगाल में गुजरात जैसी स्थिति थी, अत: वहां सी. पी. एम. की उग्र राजनीति इतनी लंबी चली। सी. पी. एम. की उग्रता का विकल्प भी उग्र ममता बनर्जी ही हो सकती है। शिवराज सिंह चौहान, भूपेन्द्र सिंह हुड्डा, नीतीश कुमार, अशोक गहलोत, शीला दीक्षित, राहुल गांधी, नवीन पटनायक, जैसे मृदु स्वभाव के शालीन, व्यवहार कुशल नेतृत्व की उत्तर भारत में लोकप्रियता स्वाभाविक है। यह जुझारू कौमों (जातियों) का इलाका है। राष्ट्रीय स्तर पर तुलसीदास, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति ही सफल नेतृत्व दे पाते हैं। राणा प्रताप, शिवाजी, गुरू गोविन्द सिंह, मोरारजी देसाई, संजय गांधी, वी. पी. सिंह, मायावती जैसे लोगों का अपना समर्थक वर्ग रहा है लेकिन इन्हें अखिल भारतीय स्तर पर वह सफलता नहीं मिली जो उपरोक्त शालीन, व्यवहार कुशल, लचीले युक्ति वादियों को मिली। इंदिरा गांधी एक अपवाद मानी जाएंगी। 16 वर्षों तक उनकी राजनीति में उग्रता और लचीलेपन का अजीब मिश्रण था। सरदार पटेल को आदर्श मानने वाले लालकृष्ण आडवाणी की राजनीति इंदिरा गांधी जैसी ज्यादा रही है सरदार पटेल जैसी कम परन्तु उनको इंदिरा गांधी की तरह सफलता नहीं मिली। दरअसल राजनीति में भाग्य की भूमिका तिकड़म और जोड़-तोड़ से ज्यादा होती है वर्ना शास्त्री, नरसिन्हा राव, मनमोहन सिंह, देवे गौड़ा या इन्दर गुजराल इस देश के प्रधानमंत्री नहीं होते। कल्याण सिंह की तुलना में राजनाथ सिंह ज्यादा भाग्यशाली रहे हैं। डॉ अंबेडकर की तुलना में कांसीराम-मायावती ज्यादा भाग्यशाली रहे हैं। आरिफ बेग की तुलना में उनके श्ष्यि शाहनवाज हुसैन ज्यादा भाग्यशाली रहे हैं।

अत: आने वाले 30 वर्षों की ठीक-ठीक राजनैतिक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, केवल महत्वपूर्ण प्रवृत्तियों की ओर ही संकेत किया जा सकता है। इसमें चुनाव से पूर्व प्रदर्शित सफलतम फिल्मों की कथा वस्तु और जितने वाली पार्टी या गठबंधन की राजनैतिक भाव-भूमि में एक संरचनात्मक सहधर्मिता दिखती है। उदाहरण के लिए 1952 के आम चुनाव से पहले फिल्म बैजू बावरा ने धूम मचाया हुआ था। 1957 के आम चुनाव से पहले मदर इंडिया और नया दौर की धूम मची हुई थी। 1967 के चुनाव से पहले उपकार फिल्म की धूम मची हुई थी। 1971 के आम चुनाव से पहले हरे रामा हरे कृष्णा की धूम मची हुई थी। 1977 के चुनावी साल में अमर अकबर एंथोनी की धूम मच रही थी। 1980 के चुनाव के समय कुर्बानी की धूम मची हुई थी। 1984 के चुनावी वर्ष में शराबी की धूम मची हुई थी। 1989 के चुनावों से पहले चांदनी और मैने प्यार किया की धूम मची हुई थी। 1991 के चुनावी वर्ष में हम और सौदागर की धूम मची हुई थी। 1996 के चुनावी वर्ष में राजा हिन्दूस्तानी और माचिस की धूम मची हुई थी। 1998 के चुनावी वर्ष में कुछ कुछ होता है और सत्या की धूम मची हुई थी। 1999 के चुनावी वर्ष में हम दिल दे चुके सनम और सरफरोश की धूम मची हुई थी। 2004 के चुनावी वर्ष में वीर जारा और धूम की सफलता चर्चित रही। 2009 के चुनावों से पहले राज 2 - द मिस्ट्री कंटीन्यूज एवं स्लमडॉग मिलेनियर की सफलता के साथ- साथ सिंह इज किंग, रब ने बना दी जोड़ी  और गजनी की सफलता चौंकाती रही। तीनों फिल्में 2008 में रिलीज हुई थी और चुनाव के दौरान निर्माता-वितरक-मल्टीप्लेक्स का करीब-करीब दो माह से झगड़ा चल रहा था जिससे नई फिल्में रिलीज नहीं हो पा रही थीं। निर्माताओं और मल्टीप्लेक्स मालिकों की आपसी लड़ाई के तीन परिणाम हुए। एक तो यह की हिन्दी फिल्मों की प्रतियोगिता से मुक्त तीन विदेशी फिल्मों ने बाजी मारी। पहली फिल्म ऐंजल्स एंड डेमंस रही। दूसरी फिल्म स्टार ट्रेक रही। तीसरी फिल्म हैरी पॉटर एंड हाफ ब्लड प्रिंस रही। ऐंजल्स एंड डेमंस डा विंची कोड से पहले की कहानी है। यह एक मिथकिय फिल्म है जो डैन ब्राउन नामक लेखक की रचना है। इसका दूसरा परिणाम कांग्रेस और डी एम के की 2009 के लोक सभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत रही। कांग्रेस की जीत की तुलना ऐंजल्स एंड डेमंस फिल्म से की जा सकती है। जबकि डी एम के की सफलता की तुलना स्टार ट्रेक से की जा सकती है। जब भी लोग आपस में लड़ते हैं हमेशा विदेशियों को फायदा होता है। राजनीति में विदेशियों की तुलना विपक्षियों से की जा सकती है। इसका तीसरा परिणाम श्रीलंका में शांति और एल टी टी ई का सफाया कहा जा सकता है। तीस वर्षों से प्रभाकरण श्रीलंकाई तमिलों का खूनी प्रतिनिधित्व कर रहा था। इसी तरह बिहार में लालू प्रसाद और राम विलास पासवान की तीस वर्षों की उग्र राजनीति का अंत हो गया। इसकी तुलना हैरी पॉटर एंड हाफ ब्लड प्रिंस से की जा सकती है।

विशेषज्ञों ने उपरोक्त फिल्मों की सफलता के कारण और सफल पाटिर्यों की सफलता के कारणों के बीच संरचनात्मक सहधर्मिता ढूँढा है। जो जनता अपना नेता चुनती है वह अपना मनोरंजन चुनना भी जानती है। दोनों चुनावों में संरचनात्मक संगति का बार-बार सामने आना महज संयोग नहीं कहा जा सकता। इसके पीछे जनता का सामाजिक मनोविज्ञान काम कर रहा होता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'सिनेमा एंड कल्चर इन इंडिया' विषय पर एक लोकप्रिय कोर्स की पढाई होती है जिसमें जनता के उपरोक्त सामाजिक मनोविज्ञान पर गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। यह राजनैतिक समाजशास्त्र का एक नया आयाम है जिससे राजनैतिक प्रशिक्षण का नया कोर्स विकसित होने की प्रक्रिया में है। इसका लाभ आने वाले चुनाव से पहले उपलब्ध हो जाएगा।

 

पिछला पेज डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख अगला पेज

top