Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति का भविष्य

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भारतीय राजनीति का भविष्य

 

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सी. एस. डी. एस. के चुनाव विश्लेषण में इसी की छाया दिखती है। यह भाजपा के लिए आत्म- परीक्षण करने का सुनहरा मौका है। धीरे - धीरे भारतीय मध्यवर्ग की प्राथमिकताएं एवं आकांक्षाएं बदल गई हैं। अब युवा मतदाताओं की संख्या निर्णायक है। खासकर शहरी युवा 1950 से 1990 के बीच के मुद्दों से अपने को जोड़ नहीं पाता। 1991 के उदारीकरण के बाद एक नया ''भारत'' और एक नया ''इंडिया'' उभर रहा है। न अब गांव वैसे रहे, न शहर वैसे रहे। परन्तु इस देश के अधिकांश दल इस सच्चाई से अब भी मुँह चुरा रहे हैं। कांग्रेस का नेतृत्व भी पूरी तरह इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। लेकिन कुल मिलाकर वह तुलनात्मक रूप से मतदाताओं की नजर में बेहतर साबित हुई है। यदि भाजपा इस चुनाव परिणाम से सबक लेकर कायाकल्प करे तो अगले चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतर हो सकता है। वर्ना कोई नया दल सामने आयेगा। जनसंघ और भाजपा का जन्म नेहरूवादी अनियमितताओं को दुरूस्त करने के लिए हुआ था। भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थी एवं आर्यसमाज के समर्थक जनसंघी विचारधारा के सबसे कट्टर समर्थक थे। यह शीतयुध्द का भी काल था। भाजपा सोवियत संघ समर्थक कांग्रेस के विरूध्द एक प्रकार के नाटो समर्थक दल के रूप में उभरी थी। स्वामी विवेकानंद के हिन्दुत्व से भी यह प्रभावित थी। स्वामी विवेकानंद पश्चिमी ज्ञानविज्ञान एवं लोकतंत्र के साथ भारतीय संस्कृति के समन्वय की बात करते थे। अत: जब कांग्रेस ने 1991 से 1996 के बीच उदारीकरण चलाकर नेहरूवाद की इतिश्री कर दी तो भाजपा के प्रति मध्यवर्ग का स्वाभाविक रूप से आकर्षण बढ़ा। कांग्रेस खुद जनसंघ - भाजपा की नीतियों पर चलने वाली पार्टी बन चुकी थी। 1996, 1998, 1999 में भाजपा लगातार सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। लेकिन तब तक भाजपा का कांग्रेसीकरण पूरा हो चुका था। यह विशिष्ट पहचान वाली पार्टी नहीं रह गई थी। इसका 1998 से 2004 तक का शासन काल अन्य सरकारों से गुणात्मक रूप से भिन्न नहीं था। भाजपा ने खुद नारा लगाया था, सबको परखा बार–बार, हमको परखो एक बार। जनता ने जब भाजपा को शासन देकर परख लिया तो इस नारे का महत्व समाप्त हो गया। भाजपा भी वैसी ही निकली। इसकी कथनी और करनी में कांग्रेस से भी ज्यादा बड़ा अन्तर्विरोध निकला। 2004 से 2009 तक भाजपा अपनी हार के असली कारण को समझने से लगातार बचती रही। फलस्वरूप समयानुकूल परिवर्तन की बजाय भाजपा खुशफहमी में अपनी सरकार के लौटने का इंतजार करती रही। यह ''बैड लूजर'' साबित हुई वर्ना 2009 में उसकी जीत करीब-करीब पक्की थी। कांग्रेसी तक नहीं मान रहे थे कि 160-165 से ज्यादा सीटें आएंगी। 2009 में सीटों के परिसीमन के बाद यह पहला चुनाव था। कांग्रेस विकल्पहीनता के कारण 206 सीटों पर विजयी हुई है। 2004 में भाजपा अपने अंहकार के कारण 182 से 138 पर पहुंची थी। हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था अब वयस्क हो चुकी है। अब मतदाता भावावेश में आकर वोट नहीं डालता। अपने विवेक से अपना नेता चुनता है। अब हम सर्वसमावेशी राजनीति के दौर में जी रहे हैं। इसमें वोटरों को वोट डालने के लिए प्रेरित करना सबसे आवश्यक है। इसमें अपनी एजेडा की बात करना ज्यादा आवश्यक है विरोधियों के प्रति नकारात्मक प्रचार उपयोगी साबित नहीं होती। धीरे-धीरे भाजपा की नैतिक धुरी गायब होती चली गई है। 2004 में 'इंडिया शाइनिंग' के अव्यवहारिक, खोखले नारे के बाद भाजपा का प्रचार अभियान विरोधी दलों के बारे में नकारात्मक प्रचार में ज्यादा जुटा रहा। इसके लिए आडवाणी के आसपास जड़विहीन ''विशेषज्ञों की मंडली जिम्मेदार मानी जाती है। हर दल की तरह जीतने की क्षमता को विचारधारा या नैतिकता पर तरजीह देकर टिकट बंटवारा का चलन आडवाणी, प्रमोद महाजन, सुधीन्द्र कुलकर्णी युग से पहले भाजपा में देखने-सुनने को नहीं मिलती थी। ऐसा लगता है कि भाजपा के कद्दावर नेता वर्तमान और भविष्य के लिए पार्टी को तैयार करने की बजाय आपसी लड़ाई में समय व्यतीत करते हैं और संगठन, विचारधारा तथा प्रचार-प्रसार का काम भाड़े के तिकड़मियों को दे दिया गया है। इसके बजाय कांग्रेस में सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, राहुल गांधी का केन्द्रीय नेतृत्व तुलनात्मक रूप से ज्यादा परिपक्व दूरदर्शिता दिखलाने में कामयाब रहा है। परिसीमन आयोग ने लोकसभा एवं विधानसभा का नया परिसीमन किया है इसके राजनीतिक फलितार्थों के दृष्टि से अन्य दलों की तुलना में कांग्रेसी नेतृत्व संभवत: ज्यादा सजग था। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 1984 में राजीव गांधी को 415 सीटें मिली थी और भाजपा को मात्र 2 । 1989 में कांग्रेस की सीटें 197 यानि आधी से भी कम रह गई थीं जबकि भाजपा की सीटें 2 से 86 हो गई थीं। अगले आम चुनाव में कांग्रेस को कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा। वामपंथी दलों का गढ़ अब ढ़हने लगा है। भाजपा को पश्चिम बंगाल, केरल और तेलंगाना में विशेष मेहनत करना चाहिए। उत्तर भारत में उसे कांग्रेस विरोधी प्रभु जातियों को अपने साथ फिर से जोड़ना चाहिए।

 

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