भारतीय राजनीति का भविष्य
पेज 4 सिनेमा के अलावे राजनैतिक प्रक्रिया को धार्मिक भावनाएं भी गहराई से प्रभावित करती है। मैक्स वेबर ने विश्व के प्रमुख धर्मों के सामाजिक मनोविज्ञान का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। अगस्त कोम्ट के जमाने से समाजशास्त्रियों का मानना रहा है कि समाज की धार्मिक भावनाओं के नियमण में पुरोहितों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सेमेटिक धर्मों में पौरोहित्य प्रशिक्षण की व्यवस्थित प्रक्रिया है लेकिन सनातन धर्मों में इसकी प्रक्रिया अवरूध्द हो गई हैं। खासकर हिन्दुओं में पौरोहित्य प्रशिक्षण की युगानुकूल व्यवस्था लंबे समय से लंबित है। सोसाइटी फॉर इंडियन थॉट एंड एक्शन (SITA) इस क्षेत्र में गंभीर शोध, विमर्श एवं प्रशिक्षण में लगी हुई है। इसी तरह जगदगुरू रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर पौरोहित्य का डिप्लोमा शुरू करने जा रहा है। अशोक गहलोत की सरकार राज्य सरकार के अधीन मंदिरों एवं धर्मस्थानों में इन्हें नौकरी देगी। दक्षिण भारत के राज्यों में कर्मकांड जानने वाले पुरोहित पर्याप्त संख्या में मिल जाते हैं। जवाहरलाल नेहरू दूसरे प्रकार के युगानुकूल मंदिरों और पुरोहितों की बात करते थे। स्वामी विवेकानंद और दयानंद की दृष्टि से नेहरू प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित थे या वे यूरोपीय धर्म सुधार आंदोलन के प्रभाव में ऐसा कह रहे थे इसके बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है। परन्तु महात्मा गांधी की योजना भी इसी लक्ष्य (धार्मिक सुधार) को दूसरे साधनों से पूरा करने की थी। उनके सर्वोदयी कार्यकर्ता समकालीन भारत के पुरोहित ही थे। संघ (RSS) के प्रचारक भी अप्रत्यक्ष रूप से यही काम करने का दावा करते हैं। इन सबमें गांधी जी की समझ सबसे ज्यादा स्वदेशानुकूल थी। विवेकानंद एवं दयानंद भारतीय मध्यवर्ग की दृष्टि से ज्यादा युगानुकूल थे। जवाहरलाल नेहरू भी इसी शैव-शाक्त परम्परा के प्रतिनिधि थे। जहां तक समकालीन भारतीय राजनीति की बात है 1977 से लोकसभा के सांसद बहुत कम मतों से जीत रहे हैं। मददाताओं में वोट डालने का उत्साह लगातार कम हो रहा है। 1977 में 60.5% वोटरों ने वोट डाला था। 2009 में 58.2% वोटरों ने वोट डाला। झारखंड और जम्मू काश्मीर के सांसदों को 17% मत मिलने पर विजय मिल गई है। बिहार और उत्तरप्रदेश में 18% मत विजय के लिए पर्याप्त था। महाराष्ट्र, उत्तराखंड और गुजरात के सांसदों को 23% मत मिला है। मध्य प्रदेश और राजस्थान के सांसदों को 24% मत मिला है। छत्तीसगढ़ के सांसदों को 25% मत मिला है। कर्नाटक में 26% मत मिला है। हरियाणा, आंध्र, असम, ओड़िसा के सांसदों को 29% मत मिला है। दिल्ली में 30% तमिलनाडु में 32% पंजाब में 33% केरल में 36% और बंगाल में 41% मत मिला है। यह लोकतंत्र के लिए बहुत अनुकूल स्थिति नहीं है कि 145 सांसदों को 20% से कम मत मिला है। 2020 में हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र होंगे जहाँ कि औसत आयु 29 वर्ष होगी। लेकिन जब तक हमारी उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और व्यावसायिक शिक्षा की समूची मरणासन्न व्यवस्था में पूर्ण क्रांतिकारी बदलाव नहीं होते भारत क्रुध्द, बेरोजगार और आवारा युवकों की आबादी बन जाएगी। तब भारत की वही हालत हो जाएगी जो फ्रांस की 1968 के आसपास थी। तब फ्रांस के विश्वविद्यालयों में युवाओं का विद्रोह फूट पड़ा था। उस वक्त फ्रांस में ज्यांपॉल सार्त्र की उसी तरह तूती बोल रही थी जिस तरह 2009 के आम चुनाव के बाद डा. मनमोहन सिंह की बोल रही है। सार्त्र की जिंदगी जब आकार ले रही थी तब फ्रांस समेत पूरे यूरोप में कोई भी आशा की किरण साबुत नहीं बची थी। दो विश्व युध्दों में अकल्पनीय सामूहिक संहार के सामने निरूपाय खड़ा सारा यूरोप कई स्तरों पर अकेला होता गया - सारे वाद, दर्शन, व्यवहार, रिश्ते बिखर गए या अर्थहीन हो गए। दर्शन, दिशा, अभिव्यक्ति की इस भयंकर अकेला कर देने वाली शून्यता को पहचानना और उसका उपाय खोजना बौध्दिक गहराई, उत्कंठा और साहस की मांग करता है। सार्त्र और उनकी मंडली में यह साहस था और इसी साहस ने उस दौर में सबका ध्यान खींचा। सार्त्र पूँजीवादी तथा मार्क्सवादी अतिरेकों और अतिवादों से परे एक तीसरा मध्यम मार्ग निकालना चाहते थे। तब तक पूँजीवाद और समाजवाद बीते जमाने की चीज बन चुकी थी। इनके पास समकालीन समस्याओं का समाधान नहीं है। महात्मा गांधी, जे. सी. कुमारप्पा और दत्तोपंत थेंगडी भी तीसरा रास्ता या मध्य मार्ग की बात भारत में करते रहे हैं। हाल में एंथोनी गिडेन्स भी तीसरे रास्ता की बात करते रहे हैं। लेकिन तीसरा रास्ता का सफर भारत और यूरोप दोनों जगह एक सैध्दांतिक संभावना भर रही है। इसका व्यावहारिक रास्ता काफी उबड़ खाबड़ है। एक पार्टी के रूप में भाजपा और तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक अनौपचारिक तौर पर इसी से मिलती-जुलती बात करते रहे हैं लेकिन इसका कोई ठोस औपचारिक विमर्श अभी तक इस देश में शुरू नहीं हो पाया है।
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