भारतीय राजनीति का भविष्य
पेज 5 जिस तरह सार्त्र 1968 के युवा विद्रोह के नायक नहीं बन पाए उसी तरह भारत का वर्तमान नेतृत्व जिसमें कांग्रेस का नेतृत्व विशेष रूप से शामिल है 2014 या 2019 के आम चुनावों में युवा मतदाताओं की कसौटी पर खरा उतरने वाला नहीं है। मनमोहन सिंह ने 1991 में पूँजीवादी रास्ता अपनाया था। 2004 से 2008 के बीच वाममोर्चा के दबाव में वे आार्थिक स्तर पर पूँजीवादी नीतियों को काबू में रखने के लिए मजबूर थे, परन्तु 2008 की जुलाई में उनकी सरकार अमेरिका परस्त विदेश नीति के मुद्दे पर गिरते-गिरते बची थी। सरकार को बचाने के लिए प्रजातंत्र की नैतिकता ताक पर रखकर खरीद-फरोख्त कर एम. पी. जुटाए गए थे। इस बार कांग्रेस को 206 सीटें मिली हैं। 2004 के 145 से यह काफी ज्यादा है। परन्तु 1991 में कांग्रेस को 232 और 1984 में करीब 415 सीटें मिली थीं। अत: केवल सीटों की संख्या बढ़ जाने से कांग्रेस को जादू का चिराग नहीं मिल गया है। देश की बहुत सारी समस्याओं पर ठोस काम करना होगा। इस वक्त जनता की काँग्रेसी गठबंधन की सरकार से वैसी ही आशाएं हैं जैसी 1998 -99 में भाजपा गठबधन की सरकार से थी। कांग्रेस के नेतृत्व के पास युवाओं को लुभाने के लिए राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का चेहरा काफी नहीं है। कांग्रेस के पास ठोस नीतियों का अभाव है। कड़े निर्णय लेने का 1980 के बाद कांग्रेस का इतिहास नहीं है। अत: संभावना यही है कि मनमोहन सिंह उदारीकरण की पूँजीवादी नीतियों को ही आगे बढ़ाएंगे तथा युवाओं को लुभाने के लिए पूँजीवादी सब्ज-बाग दिखाए जाएंगे लेकिन विश्वव्यापी मंदी और आतंकवाद के दोहरे दबाव को झेलते हुए कांग्रेस इस देश और युवा वर्ग की अपेक्षाओं पर कितना खरा उतरेगी इस पर भाजपा को गंभीर नजर रखनी होगी और एक सजग एवं उत्तरदायी विपक्ष की भूमिका निभानी होगी। कांग्रेस की चूक भाजपा के लिए संजीवनी साबित हो सकती है बशर्ते भाजपा अपने नेतृत्व एवं विचारधारा के स्तर पर लंबित समस्याओं का जल्द से जल्द समाधान कर ले। परंतु उसके लिए भाजपा को राजनैतिक लड़ाई मैदान में लड़नी होगी, वातानुकूलित कमरों में नहीं। चुनाव जमीनी प्रबंधन से जीते जाते हैं हाइटेक प्रचार से नहीं। भारत की राजनीतिक या आर्थिक हकीकत गुणात्मक रूप से अब भी वैसी ही है जैसी 2004 में थी, इसलिए गठबंधन की राजनीति का जीवन काल अभी लंबा है। 206 सीट आने के बाद कांग्रेस खुशफहमी में जी रही है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में वह 2014 में अकेले सरकार बना लेगी। कांग्रेस की यह खुशफहमी देश की ठोस राजनीतिक धरातल के बारे में नासमझी की उपज है। छोटे क्षेत्रीय दलों के प्रति उसका मौजूदा नजरिया एक बार फिर से गैर-कांग्रेसवाद की आवश्यकता को बल प्रदान करेगा जिससे भाजपा को नि:संदेह फायदा होगा। वाम मोर्चा का पतन अब रूकने वाला नहीं है। नई चुनौतियों के इस युग में न वामपंथ का आकर्षण बचा है न जमीनी स्तर पर इनका संगठन ऊर्जावान है। अत: भाजपा 2014 में कांग्रेसी गठबंधन के खिलाफ एक विवेक सम्मत एवं ऊर्जावान धूरी अब भी बन सकती है बशर्ते वह अपनी वर्तमान कमियों को दूर करने में सफलता पा ले। वर्ना कोई नया दल या गठबंधन इस मौके का फायदा उठा सकता है । यह मौका है भारत को एक महान राष्ट्र बनाने के लिए सकारात्मक राजनीति करने का। यह मौका है भारतीय समाज की विविधता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए विभिन्न समुदायों की आशा एवं आकांक्षा को प्रतिनिधित्व देने का। कोई भी एक दल इस काम को अकेले नहीं कर सकता। यह काम न जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में हो पाया था और न इंदिरा गांधी या राजीव गांधी के नेतृत्व में हो पाया था। यह काम न मोरारजी देसाई कर पाए थे और न नरसिम्हा राव। यह न अटल बिहारी वाजपेयी कर पाए थे और न अब तक मनमोहन सिंह कर पाये हैं। स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत कब की खत्म हो चुकी है। अब सोनिया-राहुल की टीम कांग्रेस को चाहे जितना मजबूत करने की कोशिश करें, 545 सीटों की लोकसभा में कांग्रेस पार्टी अकेले भारत के सभी समुदायों और वर्गों के हितों की रक्षा नहीं कर सकती। इसके लिए कई राजनीतिक दलों की प्रासंगिकता बनी रहेगी। भारतीय राजनीति में राहुल कांग्रेस का अच्छा भविष्य है। लेकिन यह मानना कि केवल कांग्रेस का भविष्य है सच्चाई से मुँह मोड़ना है। भारत चीन या अमेरिका नहीं है। भारत में विविधता बढ़ी है, घटी नहीं है। इसके लिए प्रत्येक ऊर्जावान दल को नई राजनीतिक रणनीति रचनी पड़ेगी, नया नारा गढ़ना पड़ेगा। नया एजेंडा लाना पड़ेगा, नई प्रतिबध्दता विकसित करनी पड़ेगी। नई सत्ता की राजनीति 2009 में शुरू हुई है अभी तो कई अप्रत्याशित घटनाएं घटनी हैं। 2014 में अभी 5 वर्ष बाकी है। 2019 में 10 वर्ष बाकी है। अभी से राहुल ब्रिगेड़ की 2014 में ताजपोशी निश्चित नहीं मानी जा सकती। यह असंभव नहीं है लेकिन काफी मुश्किल और अनगढ़ रास्तों से कांग्रेस पार्टी को चलना पड़ेगा। जरा सी चूक हुई कि राजनीति का शतरंज बदल जाएगा। यू. पी. में मायावती के साथ यही हुआ है। केन्द्र में कांग्रेस के साथ भी यही हो सकता है।
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