Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय राजनीति का भविष्य

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भारतीय राजनीति का भविष्य

 

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सरकार तो जनादेश से बन गई लेकिन उसे ठोस परिणाम देने होगें। अब तक मनमोहन सरकार का प्रेरणा स्रोत शेयर बाजार और कारपोरेट वर्ल्ड रहा है। अब गाँवों और कस्बों के विकास पर ध्यान देना होगा। शहरी गरीबों पर ध्यान देना होगा। आधारभूत ढाँचा विकसित करना होगा। बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होगी। राहुल ब्रिगेड के ज्यादातर नेता राजनीतिक सामंतों की संतान हैं और रईसजादे हैं। ग्रामीण और कस्बाई युवाओं की आशाओं और आकांक्षाओं की उन्हें कितनी समझ है यह किसी से छिपा नहीं है। राहुल ब्रिगेड युवा अवश्य है लेकिन यह देश के 30 प्रतिशत युवाओं के प्रतिनिधि हैं। 70 प्रतिशत युवाओं तक पहुँचना और उनको इस देश की मुख्य धारा मानना राहुल ब्रिगेड की असली चुनौती है। वर्ना सरकार की प्राथमिकता शहरी मध्यवर्ग, शेयर बाजार और औद्योगिक घरानों के इर्द-गिर्द ही घुमता रहेगा। देश की मिट्टी में अभी भी इतनी सामर्थ्य है कि वह मंदी के इस दौर में भी 110 करोड़ लोगों का पेट भर सकती है। ऐसे में सवाल सरकार के नजरिए का है, काम के तरीकों का है। अपने देश की भूमि पर अपने संस्थानों के जरिए ऐसी अर्थ व्यवस्था विकसित करनी होगी जो गाँव और पिछड़े इलाकों से लोगों का पलायन रोके। सबसे पहले शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार को साधने का लक्ष्य बनाकर काम करना होगा। दूसरा क्षेत्र टेलीकॉम का है। तीसरा क्षेत्र विधि सुधारों का है। चौथा क्षेत्र भूमि सुधार औेर नदियों को जोड़ने का है इससे बाढ़, सूखा और पलायन रोका जा सकता है। पांचवां क्षेत्र कॉरपोरेट सेक्टर की पूँजी का देश हित में आधारभूत ढाँचे और बुनियादी सेवाओं के विस्तार में लगवाने का है। औद्योगिक घरानों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना लगातार घटती जा रही है। किसी भी विकसित देश में पूँजीपतियों के बीच सामाजिक उत्तरदायित्व अपने आप रहती है। बिल गेट्स और माईकल बफेट इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। यदि सरकार उपरोक्त क्षेत्रों में सफल होती है तो इनकी सरकार फिर वापिस आ सकती है। जनादेश अब विकास के मुद्दे से जुड़ गया है। बिना ठोस उपलब्धि के जनादेश नहीं मिलता। विकल्पहीनता लंबे समय तक नहीं रहती। यह ठीक है कि आज भाजपा कांग्रेस से 90 सीट पीछे है और उसका मत प्रतिशत भी कांग्रेस से 9.70 प्रतिशत कम है लेकिन भाजपा का पुनरूत्थान अब भी संभव है। उसके पास लोकसभा में 116 और राज्यसभा में 47 सांसद हैं। आठ राज्यों में सरकार है। यदि भाजपा का नेतृत्व अपने वैचारिक अधिष्ठान को युगानुकूल करके अपने सामाजिक आधार को विस्तृत करने का ठोस प्रोग्राम बनाये तो वह कांग्रेसी संस्थान का अब भी विकल्प बन सकती है। अत: कांग्रेस को ठोस परिणाम देने ही होगें। यू पी ए के पिछली सरकार के दौरान भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर की नीतियां और व्लैक मनी या काला धन की समानांतर अर्थ व्यवस्था ने इस देश को मंदी के मार्ग से काफी हद तक बचा लिया; वर्ना बेरोजगारी और मंदी की दोतरफा मार से, देश में हाहाकार मच जाता और समाज के भीतर सिविल वार या गृहयुध्द की स्थिति पैदा हो जाती। रिजर्व बैंक के गवर्नर की नीतियों को वाम मोर्चा का राजनैतिक सर्मथन भी प्राप्त था फलस्वरूप सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक एवं बीमा कंपनियों की हालत पश्चिमी देशों के मुकाबले स्थिर बनी रही। राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार के बावजूद इस देश का वर्तमान और भविष्य अच्छा है।

2002 से 2009 के बीच इस देश में काफी महत्वपूर्ण संक्रमण काल था। 2009 के बाद इस देश को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ेगा।

पश्चिमी लोकतंत्रों के तजुर्बे से हासिल किए गए 'लिबरल फंटेसी' के कारण भारतीय मध्यवर्ग भी दो दलीय या तीन दलीय प्रणाली के अलावा किसी और स्थिति को ग्राह्य नहीं मानता। कांग्रेस के झंडे तले राजनीतिक भागीदारी के जिस मॉडल से भारत के विभिन्न जातीय, भाषाई और धार्मिक समुदायों को बराबरी की भागीदारी देने का वादा किया गया वह एक नारा ही बना रहा। दरअसल यह वादा सहभागिकता और सत्ता के बंटवारे के नाम पर एक चतुर प्रभु वर्ग का वर्चस्व बनाए रखने वाली व्यवस्था का लुभावना रूप था। भारतीय संदर्भ में अनुभव से यह उजागर हो चुका है कि किसी एक पार्टी में शामिल होने के बजाए हर समुदाय अपनी छोटी ताकत के दम पर राज्य और देश में अपनी अलग पार्टी बनाकर सत्ता में कहीं ज्यादा सार्थक हिस्सेदारी कर सकते हैं। इस तरह गठजोड़ों के युग को भारत के राजनीतिक भविष्य का आवश्यक तत्व एवं लोकतंत्र के विकास-क्रम का स्वाभाविक चरण माना जाना चाहिए। भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व एक राजनीतिक दल और एक विचारधारा द्वारा किया जाना एक अव्यवहारिक अपेक्षा है। उदाहरण के लिए केरल की गठबंधन राजनीति के बावजूद केरल का विकास नहीं रुका है। केरल में लंबे समय से गठजोड़ों की सफल राजनीति चल रही है। केन्द्र में भी 1989 से गठबंधन या अल्पमत की सरकारें चल रहीं हैं लेकिन इस देश का विकास नहीं रूक रहा है। इस यथार्थ को स्वीकार कर ही इस देश की राजनीति का भविष्य बनने वाला है।

 

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