भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां
पेज 1 शिक्षा एक बच्चे की आंतरिक क्षमता तथा उसके व्यक्तित्व को विकसित करने वाली प्रक्रिया है। यह उसे समाज में वयस्क भूमिका निभाने के लिए समाजीकृत करती है तथा एक उत्तरदायी नागरिक एवं समाज के सदस्य बनने के लिए व्यक्ति को आवश्यक ज्ञान तथा कौशल उपलब्ध कराती है। समाजीकरण की प्रक्रिया के एक अंग के रूप में यह नये सदस्यों के मन में समाज की सांस्कृतिक विरासत, मानकों एवं मूल्यों का आत्मसातीकरण करती है। समाजीकरण एक प्राथमिक तथा अनौपचारिक प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत एक व्यक्ति दूसरों की सामाजिक अपेक्षाओं के अनुरूप अपने व्यवहारों को ढालता है। भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही काफी विकसित शिक्षण संस्थाएं रही हैं। भारतीय संस्कृति गुरू-शिष्य परंपरा वाली शिक्षा के लिए विख्यात रही है। नालंदा एवं तक्षशिला जैसे महान विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में स्थित थे। 18वीं शताब्दी के दौरान बंगाल में नवद्वीप, उत्तर प्रदेश में वाराणसी, उड़ीसा में पुरी तथा तमिलनाडु में मदुरै एवं कांची जैसे अधययन केन्द्र थे। पारंपरिक भारत में शिक्षा के आधयात्मिक पक्ष पर बल दिया जाता था। शिक्षा का अर्थ व्यक्ति को परम सत्य का साक्षात्कार कराना था। इसमें निम्नलिखित क्षेत्र एवं विषय सम्मिलित थे :- भारत में पारंपरिक शिक्षा का प्रतिमान कई शताब्दियों तक रहा। ग्यारहवीं शताब्दी से जिन क्षेत्रों में मुस्लिम शासन स्थापित हुआ, वहाँ शासकों ने मकतबों (प्राथमिक विद्यालयों) एवं मदरसों (उच्च विद्यालयों) के रूप में मूलत: धार्मिक शिक्षा को प्रायोजित करना शुरू किया। मुस्लिम शासकों ने ऐसी संस्थाओं को खुले हाथ से अनुदान दिया परन्तु अधिकांशत: उन लोगों ने हिन्दू शिक्षा व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं किया। ब्रिटिश-पूर्व भारत में प्राथमिक शिक्षा अंग्रेजों के भारत आने के पहले, भारत पर उनके प्रभुत्व कायम होने के पहले भारत के कोने-कोने में, गाँव-गाँव में न सिर्फ शिक्षा के पर्याप्त केन्द्र थे बल्कि उनमें जाने वाले छात्र-छात्राओं की अच्छी खासी संख्या थी। अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान उपस्थित देशज शिक्षा व्यवस्था के बारे में हमारे पास एक विश्वसनीय विवरण है। उदाहरण के लिए विलियम एडम रिपोर्ट (1835) के अनुसार इस काल खण्ड में खासकर बंगाल एवं बिहार में काफी संख्या में ग्रामीण विद्यालय पाये जाते थे। उसी तरह, थॉमस मुनरो के अनुसार 1812-1813 के दौरान मद्रास प्रेसिडेंसी में और 1820 के आसपास मुंबई प्रेसिडेंसी में भी हर गाँव में कम से कम एक विद्यालय था। धर्मपाल के अनुसार सन् 1822-1825 में अंग्रेजों ने स्थानीय शैक्षिक व्यवस्था का जायजा लेने के लिए मद्रास प्रेसीडेंसी में एक व्यापक सर्वेक्षण कराया था। इस सर्वेक्षण में पाया गया कि मद्रास प्रेसीडेंसी (जिसमें आज का पूरा तामिलनाडु और आन्ध्रप्रदेश व कर्नाटक और उड़ीसा के कुछ जिले आते थे) में ग्यारह हजार से अधिक स्कूल (जिन्हें पाठशाला, गुरूकुल और मदरसा नाम से जाना जाता था) थे और एक हजार से अधिक कॉलेज थे और उनमें क्रमश: डेढ़ लाख और साढ़े पाँच हजार छात्र-छात्राएँ पढ़ते थे। यही नहीं इन स्कूलों-कॉलेजों में लगभग सभी जातियों के बच्चे पढ़ते थे। तमिल भाषी इलाकों में सत्तर से अस्सी प्रतिशत शूद्र या तथाकथित नीची जाति के छात्र-छात्राएँ पढ़ते थे जबकि उड़िया इलाकों में चौबीस प्रतिशत, मलयालम भाषी इलाकों के स्कूल-कॉलेजों में चौवन प्रतिशत और तेलगु भाषी इलाकों में पैंतीस से पचास प्रतिशत तक शूद्र या तथाकथित नीची जाति के छात्र-छात्राएँ पढ़ते थे। तब के मद्रास के गर्वनर का मानना था कि इन स्कूलों में स्कूल जाने योग्य लड़कों का पच्चीस प्रतिशत पढ़ता है और खासी बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएँ, विशेषकर छात्राएँ, घर में शिक्षा पाती हैं। इसी तरह धर्मपाल जी लगभग पहली बार सन् 1836 और सन् 1838 में बिहार और बंगाल में शिक्षा की स्थिति पर तैयार विख्यात एडम्स रिपोर्ट को सामने लाये जिसके अनुसार बिहार और बंगाल में 1836 और 1838 के दौरान लगभग हर गाँव में स्कूल था। इस क्षेत्र के डेढ़ लाख गाँवों में लगभग एक लाख स्कूल थे। यह उन दिनों कोई नयी बात नहीं थी। विलियम एडम से पहले टामस मुनरो ने भी कहा था कि भारत के हर गाँव में पढ़ने-लिखने और अंकगणित सीखने के स्कूल हैं और इसे वे भारतीय सभ्यता के उच्च स्तरीय होने के लक्षण के रूप में देखते थे। भारत में चेचक के टीके शताब्दियों से लगाये जा रहे थे (जब एडवर्ड जेनर और लुई पास्चर का जन्म नहीं हुआ था) और उसके विषय में ब्रिटेन के वैज्ञानिक जर्नलों में सामग्री प्रकाशित हुआ करती थी। यहाँ के खेती के औजार यूरोप के उस समय के ऐसे ही औजारों से कहीं अधिक परिष्कृत थे। यहाँ बहुप्रचारित द्विजों को नहीं, सभी को शिक्षा का अवसर था।
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