Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

पेज 1 पेज 2 पेज 3 पेज 4 पेज 5 पेज 6 पेज 7

भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

 

पेज 3

ब्रिटिश भारत में शिक्षा

सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन से भारतीय समाज में दूरगामी परिवर्तन शुरू हुए। भारत में अंग्रेजी शासन ने आधुनिक शिक्षा की आधारशिला रखी। आधुनिक काल के दौरान (जिसमें अंग्रेजी राज एवं स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का काल दोनों शामिल हैं) शिक्षा प्राथमिक रूप से धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक, तकनीकी एवं प्रबंध कौशल से संबंधित रही है।
हैस्टिंग्स, जोंस, विल्किंस तथा विल्सन जैसे कुछ अंग्रेज भारत की शास्त्रीय परंपराओं के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उनके प्रभाव में ईस्ट इंडिया कंपनी प्राच्य-अधययन का संरक्षण करने लगी थी। इससे भारत में पारंपरिक शास्त्रीय अधययन को नया जीवन मिला। अंग्रेज प्रारंभ में भारतीय संस्कृति और शिक्षा के शास्त्रीय आयाम के प्रति आकर्षित थे। 1781 में अंग्रेजों ने कलकत्ता मदरसे की स्थापना की। वारेन हैस्टिंग्स ने, जो उन दिनों बंगाल के गवर्नर जनरल थे, भारतीय संस्कृति एवं संस्थाओं में शास्त्रीय अधययन को प्रोत्साहित किया। ख्याति प्राप्त मुस्लिम विद्वानों को इन मदरसों में मुस्लिम धर्मशास्त्र, कानून, गणित तथा व्याकरण पढ़ाने के लिए आकर्षित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने चार्ल्स विल्किंस जैसे विद्वानों को संस्कृत तथा फारसी में लिखे गए भारतीय शास्त्रीय ग्रंथों के प्रकाशन के लिए भी प्रोत्साहित किया। विलियम जोंस ने 1784 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य संस्कृत की दुर्लभ पांडुलिपियों की खोज, संपादन तथा प्रकाशन था। ब्रिटिश शासन ने प्राच्य तथा आधुनिक यूरोपीयन अधययन दोनों प्रकार की संस्थाओं को स्थापित किया।
अंग्रेज बुध्दिजीवियों का एक दूसरा समूह भी उस समय मौजूद था जो प्राच्य-अधययन तथा भारतीय संस्कृति का समर्थन नहीं करता था। चार्ल्स ग्रांट, जेम्स मिल एवं मैकॉले के नेतृत्व में इन्होंने अंग्रेजी माधयम से यूरोपियन शिक्षा को भारतीय संस्कृति एवं शिक्षा की तुलना में श्रेष्ठ साबित करना शुरू किया। सन् 1790 से 1835 के बीच भारतीयों और अंग्रेजों के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी की शिक्षा नीति के बारे में गहन विवाद बना रहा। भारतीय मधयम वर्ग का एक समूह भी अंग्रेजी माधयम का समर्थक था। राजा राममोहन राय के नेतृत्व में इस समूह ने बेंटिक तथा मैकॉले को समर्थन दिया और 1835 में नई शिक्षा नीति की घोषणा कर दी गई। इसके पहले ही 1824 से 1830 के मधय अंग्रेजी की शिक्षा कलकत्ता, दिल्ली तथा बनारस के प्राच्य विद्या संस्थानों में शुरू की जा चुकी थी। 1835 के एक निर्णय के अनुसार प्राच्य विद्या के प्रोत्साहन के स्थान पर अंग्रेजी शिक्षा के लिए एक बड़ी मात्रा में सरकारी धन का उपयोग करना तय किया गया।
सन् 1835 के बाद अंग्रेजों ने नयी शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की। कलकत्ता, बंबई, मद्रास और दिल्ली के नये विश्वविद्यालय आधुनिक अधययन के केन्द्र बिन्दु बने। 1893 में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अंग्रेजी राज की शिक्षा व्यवस्था की आलोचना की और बंगाली माधयम से शिक्षा देने की वकालत की। दि बंगाल नेशनल कॉलेज की स्थापना सन् 1906 में की गई। इसी दौरान कुछ प्रमुख भारतीयों ने दो प्रकार की शिक्षण संस्थानों की स्थापना की (क) पारंपरिक संस्थाएं (जैसे देवबंद एवं लखनऊ शिक्षणालय, गुरूकुल कांगड़ी, काशी विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ तथा जामिया मिल्लिया इस्लामियाँ) इनकी स्थापना अंग्रेजी राज के दौरान उनकी शैक्षणिक आकांक्षा को धयान में रख कर की गई (ख) आधुनिक संस्थाएँ जैसे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, विश्व भारती, शांतिनिकेतन इत्यादि।

            अंग्रेजी राज के दौरान भारतीय शिक्षा की मुख्यधारा धीरे धीरे अंग्रेजों और उभरते हुए मधयमवर्ग के हितों को धयान में रखते हुए बदली गई। आरंभ में इस शिक्षा के कारण भारतीय समाज में पश्चिमीकरण को प्रोत्साहन मिला परन्तु बाद में आधुनिक राष्ट्रीय विचारों एवं गतिविधियों के प्रसार में भी इससे मदद मिली। आधुनिक शिक्षा के प्रभाव में ही विभिन्न सामाजिक- धार्मिक सुधारवादी प्रयास हुए। ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, अलीगढ़ एवं अहमदिया आंदोलन इत्यादि को भी आधुनिक शिक्षा ने प्रभावित किया।

            इस प्रकार, अंग्रेजी राज के दौरान शिक्षा की एक जटिल व्यवस्था थी। इसके अंतर्गत कई बार भिन्न-भिन्न प्रकार के अंतर्विरोधी वैचारिक धाराओं तथा संस्कृतियों को प्रतिनिधित्व मिला। एक ओर इसने पारंपरिक भारत की आर्थिक संस्थाओं और सामाजिक समरसता के संतुलन को कमजोर किया एवं दूसरी ओर आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वतंत्रता-पूर्व भारत में शिक्षा के बारे में वैचारिक रूप से तीन सम्प्रदाय दृष्टिगोचर होते हैं :-
1.         राष्ट्रवादी तथा पुनरूत्थानवादी सम्प्रदाय जो प्राचीन भारतीय विरासत का कट्टर समर्थक था एवं इस विरासत से अलग या विदेशी मूल की शिक्षा-संस्कृति का तिरस्कार करता था।
2.         दूसरा वैचारिक सम्प्रदाय विदेशी मूल के आधुनिक अधययन का विरोधी तो नहीं था, परन्तु वह आधुनिक शिक्षा के स्वदेशीकरण का पक्ष था। उनका मूल उद्देश्य शिक्षा को राष्ट्रीयता का वाहक एवं भारतीय परिस्थितियों की दृष्टि से प्रासंगिक बनाना था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय तथा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं इसी विचारञरा का प्रतिनिधित्व करती थी।
3.         अंग्रेजों द्वारा समर्थित एक तीसरा वैचारिक सम्प्रदाय भी था जो ब्रिटिश प्रारूप के आधार पर शिक्षा संस्थानों के विस्तार के लिए कृत-संकल्प था। इस विचारधारा की प्रतिनिधि संस्थाएं कलकत्ता, बंबई, मद्रास एवं दिल्ली विश्वविद्यालय थे। अंग्रेजी शिक्षा मूलत: सरकारी नौकरी पाने में सहायक थी। इसने जन शिक्षा को तो प्रोत्साहित नहीं किया परन्तु भारतीय मधयमवर्ग को विशिष्ट क्लबों में शामिल होने में मदद की।

 

 

पिछला पेज डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख अगला पेज

 

 

top