Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

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भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

 

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यह मत भूलिये वे हमारे सौतेले भाई हैं। खून का रिश्ता है हमारे बीच। एक ही पिता (कश्यप) की संतानें हैं हम सब। केवल माताएँ (दिति, दनु, अदिति) अलग हैं। विरासत में साझा अधिकार था हमारा। हमने दावा छोड़ दिया, उन्होंने नहीं छोड़ा। हमने निहत्थे, युध्द न करने के शपथ से बंधे कृष्ण को पूजा की वस्तु बना लिया और    दुर्योधन से प्रेरणा ले कर यादवी सेना (संगठन) बनाने की जुगत करते रहे। आंदोलन पर आंदोलन करते रहे। अब कृष्ण भी क्या करें ? जो लोग व्याकरण भूल कर शब्दों और वाक्यों को मारने के लिए सेना और संगठन बनाते चलते हैं, उनके द्वारा पूजे जाने पर कृष्ण की क्या हालत होती होगी?

              ऐसा नहीं था कि तक्षशिला के ध्वंस के बाद हमारे यहाँ गुरूकुल नहीं था। पर हमने नालंदा को बौध्द संस्था मानकर उसे असनातन मान लिया। बुध्द को वैष्णवों ने नौवां (नवम् ) अवतार मानकर पूजना शुरू कर दिया, पर बौध्द संस्थाएँ सामाजिक प्रेरणा के बदले सामाजिक उपहास की चीज बनी रहीं। धीरे धीरे समाज दो भागों में बंट गया। समाज के जिस हिस्से को बौध्द संस्थाओं से प्रेरणा मिलती रही वे इस्लाम के आक्रमण तक उर्ध्ववान बनी रहीं। पर इस्लाम के आने के बाद बौध्द संस्थाएँ दोहरे दबाव में दम तोड़ने लगीं।

        मध्यकाल में भक्ति आंदोलन ने सनातन धर्म एवं संस्कृति को पुनर्जीवन दिया। वैदिक एवं श्रमण, हिन्दू एवं बौध्द परंपराओं का द्वन्द्व समाप्त किया गया। कुछ संत तो हिन्दू - मुस्लिम एकता के लिए भी प्रयासरत हुए। लेकिन सनातन भारतीय सभ्यता को संरक्षित - संवर्धित करने के लिए सम्प्रदाय निरपेक्ष गुरूकुल चाहिए था। भक्ति संत भारतीय संस्कृति की रक्षा करने में तो सफल रहे परन्तु उनकी साम्प्रदायिक उपासना पध्दति सभ्यता मूलक विमर्श चलाने में सक्षम नहीं रह पायी। सभ्यता की रक्षा केवल व्यक्तिगत प्रतिबध्दता एवं साम्प्रदायिक उपासना के बल पर नहीं की जा सकती। इसके लिए केवल लोक संस्कृति को बचाना काफी नहीं है। सभ्यता के संरक्षण - संवर्धन के लिए शास्त्र चाहिए, गुरूकुल चाहिए, प्रशिक्षित विशेषज्ञ चाहिए। सभ्यता के संरक्षण - संवर्धन के लिए सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण तीनों का संतुलन चाहिए । ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और कर्ममार्ग तीनों का संतुलन वाहिए। एक 'व्यवस्था ' चाहिए। ' व्यवस्था ' और ' गुरूकुल ' के अभाव में सभ्यतायें कमजोर होकर मरने लगती हैं। संतुलन के अभाव में व्यक्ति ' रावण ' बन जाता है। रावण असंतुलित व्यक्ति है। उसके अलग - अलग गुण श्लाघनीय हैं लेकिन उसके पूरे व्यक्तित्व में असंतुलन है। रावण की दुष्टता का आधार उसका स्वभाव नही अधूरापन और असंतुलन है। जैसा कि महात्मा गाँधी ने अपनी महान कृति हिन्द स्वराज में कहा है आधुनिक सभ्यता एक शैतानी सभ्यता है। आधुनिकता एक रोग है, एक कमजोरी है। इस आधुनिकता ने पारंपरिक रावण को समझने की शक्ति हमसे छीन ली है। हम रावण को अपने अंदर नहीं देखकर अपने विरोधियों में ढूंढ़ने लगे हैं। यह असनातनी दृष्टि है। सनातनी दृष्टि में रावण हमारे समाज के अंदर है। वह हमारा सगा है। वह हमारी मध्यवर्गीय चेतना के अंदर है। हमें रावण ने जीता नहीं है, हमने उसे अतिथि का सम्मान दिया है। उसकी लंका की चमक-दमक ने हमें लालची बनाया है। हम भी अपने समाज को लंका बनाना चाहते हैं। हम भी लंकेश बनना चाहते हैं। यह चाहत स्वाभाविक नहीं है। यह हार्वर्ड बिजनेस स्कूल द्वारा फैलाया गया भ्रमजाल है। यही रावण की शक्ति का आधार है। यही उसकी नाभी का अमृत है। जब तक यह चाहत हममें कायम है रावण नहीं मरेगा। एनरॉन को मार लो या केंटुकी चिकेन को, कोकाकोला को मार लो या पेप्सी कोला को या मैकडोनाल्ड को मार लो। रावण तब तक जिन्दा रहेगा जब तक हार्वर्ड बिजनेस स्कूल जिन्दा है। उसका भ्रमजाल जिन्दा है, इस भ्रमजाल के शिकार लोग जिन्दा हैं, हमारे बीच जिन्दा हैं। उसको मारना संभव है। उसके लिए संकल्प लेना होगा। प्रायश्चित करना होगा। अपनी खोयी विरासत को पाने के लिए नयी स्मृति, नया व्याकरण और नया गुरूकुल चलाना होगा। महात्मा गाँधी द्वारा लिखित हिन्द स्वराज का पाठ उपरोक्त दृष्टि से सही चेतना के निर्माण और उपयुक्त प्रेरणा के विकास में हमारा सबसे स्वाभाविक संबल साबित हो सकता है।

 

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