Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

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भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां

 

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पूर्वकाल में भी इसका ज्ञान सब लोगों को नहीं था। साधारण जनता की बात तो दूर रही, बड़े - बड़े पण्डित भी इससे वंचित थे। इसलिए प्राचीन समय में कोई - कोई आचार्य बौध्दमत के पूर्वपक्ष - स्थापना के प्रसंग में निरसनीय मत के सम्यक्ज्ञान से अभिज्ञ न थे। इसका प्रधान कारण हिन्दू समाज में बौध्दों के प्रामाणिक ग्रन्थों के पठन - पाठन का अभाव था। ग्रन्थों के उपलब्ध होने पर भी व्यक्तिगत कुसस्कारों तथा दूसरे मत या सम्प्रदाय के प्रति उपेक्षा भाव के कारण सहृदय आलोचना का अभाव था। बौध्द धर्म में जीवन के आदर्श के संबंध में प्राचीन काल से ही दो मत रहे हैं - प्रथम - मलिन वासना के क्षय का सिध्दान्त है। इसका स्वाभाविक फल मुक्ति या निर्वाण है। दूसरा - वासना का शोधन है। इससे शुध्द - वासना का आविर्भाव होता है और देह - शुध्दि होती है। देह - शुध्दि के द्वारा विश्व - कल्याण या लोक - कल्याण का सम्पादन किया जा सकता है। अंत में शुध्द वासना भी नहीं रहती और पूर्णत्व या बुध्दत्व प्राप्त होता है। पहली दृष्टि स्थविरवादियों एवं दूसरी दृष्टि महायानियों का है। स्थविरवादी परंपरा जैन परंपरा एवं निर्गुण भक्ति साधना की परंपरा के ज्यादा नजदीक है जबकि महायानी परंपरा वृहतर हिन्दू समाज की मुख्यधारा का सहधर्मी रहा है। फलस्वरूप यह आश्चर्यजनक बात लगती है कि तत्कालीन हिन्दू समाज के प्रभु वर्ग ने नालंद गुरूकुल को, तक्षशिला के नष्ट होने पर भी, अपनी आस्था और प्रेरणा का स्रोत नहीं बनाया। मौर्य साम्राज्य से लेकर शुंग वंश के शासन काल तक भारतीय संस्कृति में बौध्द, जैन एवं हिन्दू सम्प्रदायों के बीच राज्य संस्था को एवं समाज व्यवस्था को चलाने की दृष्टि से काफी प्रतियोंगिता रही है। मौर्य साम्राज्य के निर्माण से पहले तक इनके अनुयायियों में वर्गगत, समूहगत या समुदायगत विभाजन रूढ़ नहीं हुआ था।  मुनि, भिक्षु या ऋषि या सन्यासी तो सम्प्रदायों में विभक्त थे किन्तु आमजन गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए स्थानीय मुनि, भिक्षु या सन्यासी, ऋषि के पास अपनी ईच्छा, पंसद या आवश्यकतानुसार आया - जाया करते थे। सम्प्रदायों के बीच स्थानीय समुदाय या स्थानीय व्यवस्था को प्रभावित करने की दृष्टि से प्रतियोगिता अवश्य थी। इनमें सौध्दांतिक एकता तो आजतक बनी हुई है लेकिन व्यावहारिक रूप से इनके अनुयायियों के बीच भी साम्प्रदायिक विभजन का आरंभ चन्द्रगुप्त मौर्य के समय से ही प्रारंभ हुआ। आचार्य चाणक्य की इच्छा के विरूध्द सम्राट चन्द्रगुप्त खुद जैन मुनि हो गए। वाचिक परंपरा के अनुसार सम्राट बिन्दुसार हिन्दू परंपरा के रक्षक बने रहे लेकिन आचार्य चाणक्य का उन्होंने तिरस्कार किया। सम्राट अशोक ने कलिंग युध्द के पश्चात् बौध्द धर्म में दीक्षा लेकर मोगलीपुत्ता तिष्य के मार्गदर्शन में बौध्द धर्म के प्रचार - प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। सम्राट अशोक के उत्तराधिकारी बौध्द बने रहे। अंतिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या उनके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने की। शुंग वंश के शासनकाल में हिन्दू शास्त्रों के नये संस्करण बनें और बौध्दमत की साम्प्रदायिक उपेक्षा शुरू हुई। पुष्यमित्र शुंग के प्रेरणास्रोत महर्षि पतंजलि माने जाते हैं। आचार्य नागार्जुन से आचार्य शंकर तक का काल परस्पर सम्मान से लेकर परस्पर उपेक्षा के मध्य साम्प्रदायिक संगठन एवं सैध्दांतिक एकता तथा सामाजिक समरसता का काल रहा है। आचार्य वाचस्पति मिश्र के काल से भगवान बुध्द के प्रति व्यक्तिगत सम्मान तो बना रहा लेकिन उनके मत, उनकी पध्दति, उनके तकनीक तथा उनके नाम पर चलने वाले सम्प्रदायों के बारे में नासमझी और कुप्रचार बलवती होती गई। अंग्रेजी राज में इस नासमझी एवं कुप्रचार को आकादमिक संपोषण एवं सैध्दांतिक आधार दिया गया। 1958 में बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर द्वारा अपने अनुयायियों सहित बौध्द धर्म की दीक्षा लेने के बाद से निहित स्वार्थी समूहों ने दोनों सम्प्रदायों के बीच की खाई और चौड़ी करने की कोशिश शुरू किया। आंनद कुमारस्वामी, जे. कृष्णमूर्ति, ओशो रजनीश, दलाई लामा, भरतसिंह उपाध्याय एवं सत्यनारायण गोयनका जैसे व्यक्तियों के प्रभाव में बौध्द परंपरा एवं हिन्दू परंपरा के बीच की एकता अब पुन: मजबूत हुई है। भारतीय संस्कृति में नालंदा और तक्षशिला को समान आदर से याद किया जाता है। परंतु वाचिक परंपरा में अब भी यह तथ्य रेखांकित किया जाता है कि सिकन्दर के भारत में आक्रमण से पूर्व एवं मौर्य साम्राज्य स्थापित होने से पहले आचार्य चाणक्य तक्षशिला गुरूकुल को मगध में स्थानांतरित या पुनर्जीवित करना चाहते थे, नालंदा गुरूकुल को मजबूत करना या अपनाना उनका उद्देश्य नहीं था। चाणक्य नें नंद साम्राज्य के बदले मौर्य साम्राज्य की नींव डाली। पर गुरूकुल स्थानांतरित नहीं हुआ। साम्रज्य बनाना आसान होता है गुरूकुल बनाना मुश्किल काम है। इतिहास लिखना आसान होता है, पुराण लिखना मुश्किल काम है। तक्षशिला गुरूकुल तो नष्ट हो गया पर वहाँ की किताबें कहाँ गई? इस प्रश्न का उत्तर खोजना काफी दिलचस्प हो सकता है।

            एक मान्यता यह है कि अपने विश्व विजय के दौरान अपने बचपन के गुरू अरस्तु की प्रेरणा से प्रेरित सिकंदर पर्शिया (फारस) एवं उत्तर-पश्चिमी भारत के अपने सैनिक एवं राजनैतिक अभियान के दौरान अन्य चीजों के अलावे किताबों के संग्रह के प्रति भी काफी सचेत था। कुछ पुस्तकें तो सिकंदर के अभियान के तहत यूनान पहुँच गईं, जो बचा ली गईं उन पुस्तकों को तक्षशिला के पंडितों ने भारत के अन्य प्रदेशों में सुरक्षित रूप से संरक्षित कर लिया। परंतु संस्थागत सहयोग न मिलने के कारण उनका अपेक्षित उपयोग नहीं हो पाया। दूसरी ओर नालंदा का गुरूकुल अपने बौध्द स्वरूप में मुस्लिम आक्रमण शुरू होने से पहले तक न सिर्फ अस्तित्व में रहा बल्कि अपनी सीमा के अंदर काफी सक्रिय भी रहा। 'मुस्लिम आक्रमण के बाद नालंदा का बौध्द विहार एवं गुरूकुल तो नष्ट कर दिया गया परन्तु इस परंपरा के सौभाग्य से नालंदा विश्वविद्यालय की ज्यादातर पुस्तकें सही समय पर तिब्बत में स्थानांतरित कर दी गईं और संस्थागत सहयोग मिलने के कारण अपने तिब्बती स्वरूप एवं संस्करण में आज भी जीवंत बनी हुई है (डी. डी. कोशांबी एवं इंग्लस - हारवर्ड ओरियंटल सीरिज)।

इतिहास चक्र की विडंबना देखिये कि एथेंस में किताबें पहुँची पर विश्व विजय का स्वप्न देखने वाला सिकंदर वापस नहीं पहुँचा। रास्ते में ही उसकी मृत्यु  हो गयी। राजा मर गया, पर सेनापति (सेल्युकस) जिंदा रहा। सेनापति बदलते रहे। सेनाएँ बदलती रहीं। साम्राज्य बनते और बिगड़ते रहे। अरस्तु के बाद रावण के यहाँ गुरू का महत्त्व गौण हो गया और गुरूकुल चलता रहा। गुरूकुल रूपि संस्था का महत्त्व बढ़ गया। संस्थाएँ सनातनता का बोध कराने लगीं, गुरू क्षणभंगुर चमत्कार के वाचक हो गए और रावण जीतता रहा। हम सभी सनातन परंपरा के भग्नावशेष हारते रहे। ऐथेंस के बाद रोम, फ्लोरेंस, कैंब्रिज/ऑक्सफोर्ड - अब हार्वर्ड बिजनेस स्कूल ... रावण की आत्मा - अमृत-कलश - गुरूकुल - शब्द ब्रह्य का रूपांतरण एवं स्थानांतरण होता रहा - पुनर्नवता बनी रही और वे उसी सनातन धर्म से जीतते रहे जिससे कभी हम जीतते थे।

 

 

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