भारतीय संस्कृति में शिक्षा: परम्परा एवं चुनौतियां
पेज 2 यहाँ के लाखों शिक्षा-केन्द्रों में न सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बल्कि तथाकथित निचली जातियों के लड़के-लड़कियाँ भी बड़ी संख्या में पढ़ते थे। पढ़ाने का काम भी इन समेत सभी जातियों के शिक्षकों द्वारा किया जाता था। यहाँ की राजस्व व्यवस्था एक ऐसे अद्भुत ढ़ंग से विकेन्द्रीकृत थी जिसके कारण शिक्षा, पुलिस और अन्य सार्वजनिक योजनाएँ सुचारू रूप में चल सकती थी। इससे किसानों या अन्यों पर कोई अतिरिक्त बोझ भी नहीं पड़ा करता था। इस कारण उस समय भारतीय किसानों की हालत इंग्लैंड के किसानों की हालत से कहीं बेहतर थी। भारत के अनेक गाँव समुदाय के आधार पर संगठित थे जहाँ किसानों का कुल भूमि पर हिस्सा तो रहता था लेकिन उनकी जोत समय-समय पर बदली जाती थी। कुल जमीन में हिस्सेदार किसान अलग-अलग सालों में अलग-अलग स्थानों पर खेती करते थे ताकि जमीन के उर्वर-वैषम्य की लाभ-हानि में सभी किसान साझा करें। भारत में शिक्षा व्यवस्था का ऐसा सुन्दर और परिपक्व विस्तार रहा है (जिसे गाँधी जी ने 'खूबसूरत वृक्ष' कह कर पुकारा था) जहाँ तथाकथित शूद्र बड़ी संख्या में बल्कि अनेक बार तथाकथित द्विजों से कहीं अधिक संख्या में न सिर्फ पढ़ते थे बल्कि देश में फैले हजारों शिक्षा केन्द्रों में पढ़ाते भी थे। 18वीं और 19वीं सदी तक भारत की शिक्षा अपेक्षाकृत कमजोर हो चुकी थी तब भी तुलनात्मक रूप से वह यूरोप की तब की शिक्षा-व्यवस्था से कहीं अधिक उन्नत और समतामूलक रही है। भारत की राजस्व व्यवस्था आधुनिक राजस्व व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न थी और साथ ही वह अधिक सहकारपूर्ण थी जिसके कारण उसमें तथाकथित राजसत्ता और तथाकथित समाज दोनों ही सहज साझा कर सकने की स्थिति में थे। विकेन्द्रीकृत होने के कारण राजसत्ता कभी भी अधिक ताकतवर नहीं हो पाती थी। हर्षवर्ध्दन समेत भारत के कई राजाओं को हर कुछ सालों में कुम्भ मेले में अपना सारा खजाना खाली कर देना होता था ताकि उनकी प्रभुताई एक सीमा से अधिक न बढ़ सके। भारत के अधिकांश भागों में ग्रामीण विद्यालयों का एक ताना-बाना था। इन विद्यालयों को पाठशाला एवं मदरसा कहा जाता था। जिनमें व्यावहारिक तथा सर्वागीण शिक्षा दी जाती थी। इन विद्यालयों में पढ़ने, लिखने तथा अंकगणित की शिक्षा का माधयम स्थानीय भाषाएं थीं। इन विद्यालयों में बालकों के नैतिक चरित्र निर्माण के पक्ष पर जोर दिया जाता था। यहां तकनीकी एवं व्यवसायिक शिक्षा का भी प्रावधान था। ये संस्थाएं वस्तुत: संस्कृति की संरक्षक थीं। बालिकाओं की शिक्षा के लिए कोई विद्यालय नहीं था परन्तु धनिक वर्ग अपनी युवा बेटियों को घर पर शिक्षा दिया करते थे। उन दिनों छपी पुस्तकें नहीं होती थी और विद्यार्थी मात्र स्थानीय स्तर पर बनाए गए स्लेट और खड़िया का प्रयोग करते थे। प्रशिक्षण की अवधि तथा कार्य-दिवस स्थानीय जरूरत के अनुसार बदले जा सकते थे। कोई नियमित नामांकन नहीं होता था। एक विद्यार्थी किसी भी समय विद्यालय में प्रवेश ले सकता था और वह अपनी इच्छानुसार विद्यालय छोड़ सकता था। ये विद्यालय शिक्षक या संरक्षक के घर पर या मंदिर या मस्जिद में संचालित होते थे। इन विद्यालयों के विद्यार्थी वंचित वर्गों सहित सभी वर्गों से आते थे। शिक्षकों का भुगतान वस्तु या नगद दोनों रूपों में हो सकता था। लचीलापन ऐसे विद्यालयों की विशेषता थी और ये विद्यालय विभिन्न आर्थिक परिस्थितियों में सदियों तक चलते रहे थे। अंग्रेजी शासन काल में शिक्षा की इस पारंपरिक व्यवस्था को चलाना कठिन हो गया एवं धीरे धीरे इनका विघटन हो गया।
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